सुरमई अंखियों में नन्हा मुन्ना एक सपना दे जा रे। गीतकार गुलजार, संगीतकार इल्लयराजा, गायक येसुदास ने 1983 की फिल्म सदमा के जरिये ना मालूम कितने सपनों को रंग भरे। लेकिन मार्डन लाइफस्टाइल, भागदौड़ भरी जिंदगी और तकनीक के बुरे पहलू से अनजान होने की वजह से देश ही नहीं दुनिया के करोड़ों माता-पिताओं की अंखियों के सपनों को मानो ग्रहण लग गया है। वजह है उनके नन्हे-मुन्नों की जिंदगी में मोबाइल फोन के जरिये घुला वह जहर, जिसका असर आंखों से लेकर दिमाग तक पर है।
यकीन न हो तो आप अपने आसपास उन जगहों पर नजर दौड़ाइए, जहां दूधमुंहे बच्चे से लेकर पांच-सात साल तक के बच्चे मां-बाप के साथ हों। ज्यादातर जगहों पर छोटे-छोटे बच्चे मोबाइल फोन पर आंखें गड़ाए नजर आएंगे। कभी बच्चों की जिद की वजह से मां बाप उन्हें फोन थमा देते हैं, तो कभी रोते बच्चे को चुप करने के लिए तो कभी अपनी बातचीत में खलल ना पड़े और शांति-सुकून के लिए। लेकिन इसका जो असर हो रहा है, वो बच्चों की नजर कमजोर कर रहा है और दिमाग में जहर घोल रहा है।
दिल्ली में मशहूर शिशु रोग विशेषज्ञ (pediatrician) हैं डॉ. रमेश दत्ता। दिल्ली में ठंड और प्रदूषण की वजह से इस बार बीते कई साल के मुकाबले ज्यादा बच्चे वायरल/मौसमी फीवर की चपेट में आकर उनके पास पहुंचे। दिल्ली के ज्यादातर अस्पतालों का यही हाल रहा। लेकिन इस बार डॉ. दत्ता ने एक खास बदलाव महसूस किया।

बच्चे का इलाज कराने पहुंचे ज्यादातर मां-बाप अपनी बारी आने तक बच्चों को चुप कराने या उनका मन बहलाने के लिए उन्हें या तो खुद मोबाइल फोन पर कोई वीडियो या कार्टून फिल्म दिखा रहे थे या फिर बच्चे जिद कर मां-बाप से उनका मोबाइल फोन लेकर उसमें डूबे थे।
बारी आने पर जब ऐसे मां-बाप बच्चे की बुखार और सेहत से जुड़ी बातें बताते तो एक बात कॉमन होती। उनका बच्चा अब चिड़चिड़ा, आक्रामक और जिद्दी हो गया है। मनमर्जी पूरा नहीं होने पर वह सिर पर घर उठा लेता है। डॉ. दत्ता कहते हैं, “जिगर के टुकड़े के वायरल बुखार की फिक्र सभी मां-बाप करते हैं, लेकिन अनजाने में मोबाइल फोन से जो ठीक नहीं होने वाली बीमारियों की सौगात उन्हें दे रहे है, उस पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है।”
दिल्ली मेडिकल असोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. रमेश दत्ता की चिंता बेवजह नहीं। बीते दिनों मिशिगन मेडिसिन में एक रिपोर्ट छपी। इस रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों को शांत करने के लिए मोबाइल देना उन्हें मानसिक रोगी बना सकता है। इससे बच्चों की फिजिकल एक्टिविटी कम हो जाती है। इससे वे चिड़चिड़े हो जाते हैं और कई बार चुनौतीपूर्ण माहौल में आक्रामक व्यवहार करते हैं। इसका असर बच्चों की पूरी पर्सनैलिटी पर पड़ता है। उनके व्यवहार में बढ़ती उम्र के साथ बदलाव आने लगता है। ऐसे बच्चे भावनात्मक रूप से काफी कमजोर होते हैं। स्क्रीन टाइम बढ़ने से उनका व्यवहार नकारात्मक हो जाता है।
जामा पीडियाट्रिक्स में मिशिगन मेडिसिन की छपी इस रिपोर्ट से डॉ. दत्ता पूरी तरह सहमत दिखे। वह कहते हैं,

“मेरे पास इलाज के लिए आए कई बच्चे सुस्त थे, जिनमें 12 से 18 महीने तक के बच्चे भी हैं। घरवालों ने उनके मूड स्विंग्स की शिकायतें की और ये भी बताया कि कई बार बच्चे आपे से बाहर हो जाते हैं तो कई बार उनके चेहरे पर उदासी और मायूसी दिखती है।”
डॉ. दत्ता ने ऐसे कुछ मां-बाप को बच्चों को मोबाइल फोन से दूर रखने की सलाह दी। जिन मां-बाप ने इस पर अमल किया उन्हें इसका पॉजिटिव रिजल्ट मिला। दो महीने में ही बच्चे का व्यवहार बदल गया और न केवल ये शिकायतें दूर हो गईं बल्कि खेल-कूद से कतराने वाला बच्चा आउटडोर गेम्स में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगा।
क्यों खतरनाक है बच्चों के लिए मोबाइल फोन?
• स्मार्ट फोन की स्क्रीन पास से देखने पर आंखों पर दबाव पड़ता है
• आंखों पर दबाव से जल्दी चश्मा लगता है और आंखों में जलन होती है
• इससे आंखों में सूखापन और थकान जैसी दिक्कतें भी होती हैं
• पलकें जरूरत से कम झपकती (कम्प्यूटर विजन सिंड्रोम ) हैं जिससे आंखों पर असर पड़ता है
• बच्चों का सामाजिक, शारीरिक और मानसिक विकास कम होता है
• इससे बच्चों के दिमागी विकास में बाधा पहुंचती है
• कई बच्चे कार्टून करैक्टर्स की तरह हरकत करने लगते हैं
• बच्चों में मोटापा से लेकर डायबिटीज तक का खतरा बढ़ जाता है
• बच्चों में नींद की कमी हो जाती है और उनका व्यवहार आक्रामक हो जाता है
• बच्चे भुलक्कड़ हो जाते हैं और वो किसी चीज पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते
स्मार्ट फोन और बच्चों को लेकर अब तक जितनी भी स्टडी हुई है, उनमें किसी में भी इन तथ्यों को नकारा नहीं गया। डॉ. दत्ता भी तमाम मनोचिकित्सकों की राय से सहमत दिखे। वह कहते हैं,
WHO ने मई 2011 में सेलफोन के 2B कैटेगिरी के रेडिएशन को संभावित कैंसरकारक (posible carcinogen) बताया। हालांकि 2013 में टोरंटो यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के डॉ. एंथनी मिलर ने अपनी रिसर्च के आधार पर रेडियो फ्रिक्वेंसी एक्सपोज़र के आधार पर 2B कैटेगिरी को तो कैंसरकारक नहीं माना, पर 2A कैटेगिरी को कैंसर की वजह माना। लेकिन इतना तो साफ है ही कि मोबाइल फोन का रेडिएशन बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर असर डालता है।”
डॉ. रमेश दत्ता, पूर्व अध्यक्ष, दिल्ली मेडिकल असोसिएशन
कैसे रखें बच्चों को मोबाइल फोन से दूर?
• कम उम्र में मोबाइल फोन न दें और दें तो इस्तेमाल का वक्त तय कर दें
• 3 से 5 साल तक के बच्चे को स्मार्ट फोन के बजाय टीवी ही देखने दें
• 7 साल तक के बच्चे को आधे घंटा का वक्त तय कर अपनी निगरानी में फोन दें
• 12 साल तक के बच्चे को 2 से 3 घंटे (पढ़ाई सहित) के लिए ही फोन दें
• टीनएज बच्चों को 4 से 5 घंटे (पढ़ाई सहित) के लिए ही स्मार्ट फोन दें
• जब आपका काम हो जाए तो वाइफाई बंद रखें
• घर का माहौल अच्छा रखें और बच्चों के साथ क्वालिटी टाइम बिताएं
• अपने मोबाइल फोन को पासवर्ड प्रोटेक्टेड रखें ताकि बच्चे खोल न पाएं
• बच्चों को खाली समय के लिए खेलकूद, बागवानी या बाहर के काम में व्यस्त रखें
Bahut hee achchhi jaankari.